Saturday, 14 July 2018

लावुनी आग देशात बनतो #सहिष्णुवादी कितना नादान है मुझे कहेता है #आतंकवादी

लावुनी आग देशात बनतो #सहिष्णुवादी
कितना नादान है मुझे कहेता है #आतंकवादी

समतेचा विचार सांगुनी बनतो खुप #समाजवादी
हम को पहले मालूम था है तु कितना #मनुवादी

अहींसेचा विचार सांगुनी बनतो #अहींसावादी
जिसने किया #गांधी का खुन वो नही था क्या #आतंकवादी

तु कितीही बदल्ला तर होनार नाही #अहींसावादी
तेरा झहेन ही हुवा है अब #हिंसावादी

पोट भरुन स्वताहाचा आम्हास म्हणतो #जहालवादी
तुने आग नही बुझाया पेट कि ईस लिए हुवा मै #आतंकवादी

तुच संपऊनी टाक आधी विचार #जहालवादी
हमदर्द फिर ही कहेलाएगा भारत बडा #शांतीवादी

Azeem Shaikh
अज़ीम शेख "हमदर्द"
9673086786

Sunday, 8 October 2017

जॉन एलिया



1. अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे

अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे

कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे

कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे

अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे

ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे

कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए "जॉन"
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे

2. अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़


अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़
वो बरसों बाद जब मुझ से मिला है
भला मैं पूछता उससे तो कैसे
मताए-जां तुम्हारा नाम क्या है?

साल-हा-साल और एक लम्हा
कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

दौर-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
अहद-ए-वाबस्तगी को भूल गया
यानी तुम वो होवाकईहद है
मैं तो सचमुच सभी को भूल गया

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निबाहनी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती

दिल में जिनका निशान भी न रहा
क्यूं न चेहरों पे अब वो रंग खिलें
अब तो खाली है रूहजज़्बों से
अब भी क्या हम तपाक से न मिलें

शर्मदहशतझिझकपरेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं
आपवोजीमगर ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

3. अब जुनू कब किसी के बस में है


अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है

हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है

क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है

ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है

बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है

'जॉनहम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है

4. आगे हँसते खूनी परचम


आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले

दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले

है ज़राज़ी इस किस्से कीइस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर सेअपने घर से हम निकले

मेरे कातिलमेरे मसिहामेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमकेजेबों से मरहम निकले

'जॉनशहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले

5. उम्र गुज़रेगी इंतहान में क्या


उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?


बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?


यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शक्स था जहान में क्या?

6. एक ही मुश्दा सुभो लाती है


एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है

सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है

फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है

आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है

आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है

क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है

कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है

7. एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं


एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदावो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरहखुद से डर गया हूँ मैं

कूजानां में सोग बरपा है
के अचानकसुधर गया हूँ मैं

8. कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे


कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे|
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे|

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा,
यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे|

बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो,
दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे|

मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे,
यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे|

यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे|

9. किसी लिबास की खुशबू


किसी लिबास की ख़ुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है

तेरे बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निभानी होती

मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती

दिल में जिनका कोई निशाँ न रहा
क्यों न चेहरो पे वो रंग खिले

अब तो ख़ाली है रूह जज़्बों से
अब भी क्या तबाज़ से न मिले

10. कोई हालत नहीं ये हालत है


कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है

अन्जुमन में ये मेरी खामोशी
गुर्दबारी नहीं है वहशत है

तुझ से ये गाह-गाह का शिकवा
जब तलक है बस गनिमत है

ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गईं
ये अज़ीयत बड़ी अज़ीयत है

लोग मसरूफ़ जानते हैं मुझे
या मेरा गम ही मेरी फुरसत है

तंज़ पैरा-या-ए-तबस्सुम में
इस तक्ल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है

हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो ख़ूबसूरत है

वार करने को जाँनिसार आए
ये तो इसार है इनायत है

गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हें मुझ से कुछ शिकायत है

अब निकल आओ अपने अन्दर से
घर में सामान की ज़रूरत है

आज का दिन भी ऐश से गुज़रा
सर से पाँव तक बदन सलामत है

11. क्या तकल्लुफ करे ये कहने में


उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं

वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

तुम बनो रंगतुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

12. ख़ामोशी कह रही है कान में क्या


ख़ामोशी कह रही हैकान में क्या आ रहा है मेरेगुमान में क्या
अब मुझे कोईटोकता भी नहीं यही होता हैखानदान में क्या
बोलते क्यों नहींमेरे हक़ में आबले[1] पड़ गयेज़बान में क्या
मेरी हर बातबे-असर ही रही नुक़्स है कुछमेरे बयान में क्या
वो मिले तो येपूछना है मुझे अब भी हूँ मैं तेरीअमान में क्या
शाम ही सेदुकान-ए-दीद है बंद नहीं नुकसान तकदुकान में क्या
यूं जो तकता हैआसमान को तू कोई रहता हैआसमान में क्या
ये मुझे चैनक्यूँ नहीं पड़ता इक ही शख़्स थाजहान में क्या
शब्दार्थ:
  1.  छाले

13. ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ


ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|

ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|

अब त'मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|

आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|

ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|

14. चार सू मेहरबाँ है चौराहा


चार सू मेहरबाँ है चौराहा
अजनबी शहर अजनबी बाज़ार
मेरी तहवील में हैं समेटे चार
कोई रास्ता कहीं तो जाता है
चार सू मेहरबाँ है चौराहा

15. जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका


जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|

जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|

फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|

16. जी ही जी में


1.
जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रहीं होगी

चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी

सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम
सब्ज़ किन्दील जल रही होगी

सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी

चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी

नील को झील नाक तक पहने
सन्दली जिस्म मल रही होगी

2.

गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या

याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या

बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या

अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या

क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?

है फज़ा याँ की सोई-सोई सी
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या

मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?

दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?

17. तुम जिस ज़मीन पर हो मैं



तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो

18. तुम हकीकत नहीं हो हसरत हो


तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
औए इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो

किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो

19. तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है


तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आईक्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

20. दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया


दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया

कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया

जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया

निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया

21. बेदिली क्या यूँ ही दिल गुज़र


बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे 
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे
ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे
कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे 

22. महक उठा है आंगन इस खबर से


महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे

मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से

23. मेरी अक्ल-ओ-होश की


मेरी अक्ल-ओ-होश की सब हालते
तुमने सांचे में ढाल दी
कर लिया था मैंने अहदे कर के इश्क
तुमने बाहे फिर गले में डाल दी

यू तो अपने कसदाने दिल के पास
जाने किस-किस के लिए पैगाम है
जो लिखे जाते औरो के नाम
मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम है

ये तेरे खत तेरी खुशबू
ये तेरे ख्वाब-ओ-खयाल
मताए जा है तेरे
कसम की तरह

गुज़रता साल मैने
इनहे मैने गिन के रखा था
किसी गरीब की जोड़ी हुई
रकम की तरह

है मुहब्ब्त हयात की नज़र
वरना कुछ हज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इज़ाज़त है एक बात कहू
मगर खैर कोई बात नहीं

24. यह गम क्या दिल की आदत हैनहीं तो


यह गम क्या दिल की आदत हैनहीं तो
किसी से कुछ शिकायत हैनहीं तो

है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत हैनहीं तो

किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो

किसी सूरत भी दिल लगता नहींहाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैंनहीं तो

तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत हैनहीं तो

वो दरवेशी जो तज कर आ गया.....तू
यह दौलत उस की क़ीमत हैनहीं तो

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो

अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत हैनहीं तो

25. रूह प्यासी कहाँ से आती है


रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है

दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है

शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है

एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है

26. लौ-ए-दिल जला दूँ क्या


लौ-ए-दिल जला दूँ क्या
कहकशाँ लुटा दू क्या
है सवाल इतना ही
इनका जो भी मुद्दा है
मैं उसे गवाँ दू क्या
जो भी हर्फ है इनका
नक्श-ए-जाँ ए जाना ना
नक्श-ए-जाँ मिटा दूँ क्या
मुझ को लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख़्वाब-ख़्वाब जज़्बों के
ख़्वाब-ख़्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख़याल आना
और ख़याल आने पर
मुझ से डर गई हो तुम
जुर्म के तस्सवुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने
जुर्म क्यों किये जाएँ
जुर्म हो तो
ख़त ही क्यों लिखे जाएँ

28. सर ये फोड़िए


सर येह फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुरकत में

हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में

इश्क को दरम्यान ना लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में

वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में

ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में

मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में

रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में

अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में

29. हम के ए दिल सुखन सरापा थे


हम के ए दिल सुखन सरापा थे
हम लबो पे नहीं रहे आबाद

जाने क्या वाकया हुआ
क्यू लोग अपने अन्दर नहीं रहे आबाद

शहर-ए-दिन मे अज्ब मुहल्ले थे
उनमें अक्सर नहीं रहे आबाद

30. हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं


हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|

रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|

इन को आँधि में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|

उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|

हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|

31. हमारे शौक के आंसू दो


हमारे शौक के आंसू दोखुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा

अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा

है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चन्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा

32. हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम


हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम,
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं,

तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम,
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं,

तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो आज़ाब में,
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं,

33. हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई


हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई

एक ही हादसा तो है और वो यह के आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई

बाद भी तेरे जान-ए-जां दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तेरी यां फिर तेरी याद भी गई

सैने ख्याल-ए-यार में की ना बसर शब्-ए-फिराक
जबसे वो चांदना गया तबसे वो चांदनी गयी

उसके बदन को दी नुमूद हमने सुखन में और फिर
उसके बदन के वास्ते एक कबा भी सी गयी

उसके उम्मीदे नाज़ का हमसे ये मान था की आप
उम्र गुज़ार दीजियेउम्र गुज़ार दी गयी

उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल की थी खराब और खराब की गई

तेरा फिराक़ जान-ए-जां ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फिराक़ में खूब शराब पी गई

उसकी गली से उठके मैं आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गयी

उसके पहलू से लग के चलते हैं / जॉन एलिया

उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं

मै उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलतें हैं

वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
---------------------

और तो कुछ नहीं किया मैंने 
अपनी हालत ख़राब कर ली हैं

Saturday, 24 September 2016

गज़ल (शायरी) लिखने का आसान तरीका....


काव्य के दो-पहलू होते है ,वैसे ही उर्दू शायरी में भी दो-पहलू हैं
1-कला पक्ष ---में भाषा ,अलंकार छन्द
2-भाव पक्ष ----में रस ,तग़ज़्ज़ुल,रंग,तख़य्युल, शे’रियत लताफ़त-ओ-बलाग़त आदि रख सकते हैं

आप तो जानते ही होंगे कि उर्दू शायरी में मुस्तमिल [इस्तेमाल में] बहूर [बह्र का ब0ब0] अरबी और फ़ारसी से आया है । अरबी की बहुत सी बह्रें उर्दू में अब राईज़ [प्रचलित] नहीं है ।
 दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय में] उर्दू शायरी में 19-बह्रें राइज हैं ,दर्ज़-ए-ज़ैल [ निम्न लिखित] हैं

नाम वज़न   रुक्न
सालिम बहूर
1 बह्र-ए-मुतक़ारिब 1 2 2 फ़ ऊ लुन्
2 बह्र-ए-मुत्दारिक़ 2 1 2 फ़ा इ लुन्
3 बह्र-ए-हज़ज 1 2 2 2 मफ़ा ई लुन्
4 बह्र-ए-रमल 2 1 2 2 फ़ा इला तुन्
5 बह्र-ए-रजज़ 2 2 1 2 मुस तफ़ इलुन्
   मुक़्तज़िब 2 2 2 1     मफ़ ऊ लात
*6 बह्र-ए-वाफ़िर 1 2 1 1 2   मफ़ा इ ल तुन्
7 बह्र-ए-कामिल 1 1 2 1 2   मु तफ़ा इ लुन्

मुरक़्क़ब बहूर

8 बह्र-ए-तवील 1 2 2 + 1 2 2 2 [ फ़ऊलुन्+मफ़ाईलुन्]
9 बह्र-ए-मदीद 2 1 2 2 + 2 1 2 [फ़ाइलातुन्+फ़ाइलुन् ]
10 बह्र-ए-बसीत 2 2 1 2 + 2 1 2 [मुस तफ़ इलुन्+फ़ाइलुन्]
11  बह्र-ए-मुशाकिल 2 1 2 2 + 1 2 2 2 + 1 2 2 2 [फ़ाइलातुन्+ मफ़ाईलुन्+मफ़ाईलुन्]
**12 बह्र-ए-मुन्सरिअ 2 2 1 2 + 2 2 2 1 [मुस तफ़ इलुन्+ मफ़ ऊ लात]
**13 बह्र-ए-मुक़्तज़िब 2 2 2 1 + 2 2 1 2 [मफ़ ऊ लात +मुस तफ़ इलुन्]
**14  बह्र-मज़ारिअ 1 2 2 2 + 2 1 2 2 [मफ़ाईलुन्+फ़ाइलातुन्]
**15  बह्र-ए-मुज्तस   2 2 1 2 + 2 1 2 2 [मुस तफ़ इलुन्+ फ़ाइलातुन्]
**16  बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ 2 1 2 2 + 2 2 1 2 + 2 1 2 2 [ फ़ाइलातुन्+मुस तफ़ इलुन्+फ़ाइलातुन्]
**17  बह्र-ए-सरीअ 2 2 1 2 +2 2 1 2 + 2 2 2 1   [  मुस तफ़ इलु्न्+मुस तफ़ इलुन्+मफ़ ऊ लात]
**18  बह्र-ए-क़रीब 1 2 2 2 + 1 2 2 2 + 2 1 2 2  [मफ़ाईलुन्+ मफ़ाईलुन्+फ़ाइलातुन्]
**19 बह्र-ए-ज़दीद    2 1 2 2 + 2 1 2 2 + 2 2 1 2 [फ़ाइलातुन्+फ़ाइलातुन्+मुस तफ़ इलुन्]

मैं  तो बस जो इधर उधर से कुछ पढ़ा अपने हिन्दी दाँ दोस्तों के बताने समझने व समझाने के लिए लिख रहा हूँ।ताईराना नज़र {विहंगम दृष्टि}से इस लिए लिख रहा हूँ कि आप को शे’र-ओ-शायरी और उसकी तासीर समझने में सुविधा हो।ग़ज़ल और तुकबन्दी में फ़र्क महसूस कर सके । शरद तैलंग जी का एक शे’र है-

सिर्फ़ तुकबन्दियां ही हैं काफी नहीं
शायरी कीजिए शायरी की तरह

 यहाँ कुछ बातें स्पष्ट कर दें

[1]-कि एक अच्छा ’अरूज़ी’ [ बह्र /छन्द शास्त्र को जानने वाला ] एक अच्छा ’शायर’ भी हो ज़रूरी नहीं और यह भी ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा ’शायर" एक अच्छा ’अरूज़ी’ भी हो। दोनो अलग अलग बाते हैं। अगर एक ही शख़्स में ये दोनो सिफ़त [गुण] हो तो समझिए सोने में सुगन्ध भी है।

[1]अ-कि आप बग़ैर इल्म-ए-अरूज़ [छन्द शास्त्र की ग्यान ] के भी शायरी कर सकते हैं वैसे ही कि बिना राग के ज्ञान के बिना फ़िल्मी गाना गाते है। किसी उस्ताद शायर की ग़ज़ल के सहारे सहारे कभी चुटकी बजा कर ,कभी टेबल थपथपा कर बह्र मिला सकते है। दर हक़ीक़त कुछ लोग ऐसा करते भी हैं और दिन में 2-4 "ग़ज़ल" लिख भी लेते है मगर इस से आप को ग़लत-सही का अन्दाज़ा नहीं लग सकता।

[1] ब--- कि ग़ज़ल सिर्फ़ बहर ,वज़न,रुक्न ,रदीफ़ या काफ़िया का पैमां बन्दी ही नहीं होता। वो इस से भी आगे बहुत कुछ होता है

[2]---कि बह्र-ए-मुतक़ारिब और बह्र मुतदारिक़ का रुक्न 5-हर्फ़ी है और इसका ईज़ाद बाद में हुआ यानी 7-हर्फ़ी रुक्न का ईज़ाद पहले हुआ था।

[2]अ-- बहर 6 और 7 अरबी शायरी का है ।अगर आप ग़ौर से देखे तो बहर-ए-वाफ़िर [12 112] ,बहर-ए-कामिल [112 12 ] का बरअक्स [प्रतिबिम्ब mirror image] है | बह्र-ए-कामिल खुद मे इतनी मक़्बूल और आहंग्ख़ेज़ बहर है इसी बहर में अल्लामा इक़बाल की एक ग़ज़ल बड़ी मशहूर है--

कभी ऎ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में  [11212--1121--11212-11212]
कि हज़ारों सिजदे तड़प रहे हैं ,मेरी इक जबीन-ए-नियाज़ में

जो मैं सर-ब-सिजदा हुआ कभी ,तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आश्ना ,तुझे क्या मिलेगा  नमाज में

कहने का मतलब ये है कि ऐसे मानूस बहर में कम ही शे’र या ग़ज़ल  देखने को मिलते हैं

[3]-अगर आप ग़ौर फ़र्मायें तो देखेंगे कि 7-हर्फ़ी रुक्न[1 से लेकर 5 तक और मफ़ऊलात तक] में 1 की रोटेशन कैसे बदल रही है यानी आप कल्पना करें कि 2 -2 -2- 1 किसी वृत्त पर हो और आप तीन -तीन  अंक एक साथ का गिर्दान लें तो किसी न किसी बह्र का वज़न बनता जायेगा । अरूज़ की भाषा में इस वृत को ’दायरा’ कहते हैं

[4]- मफ़ऊलात को ’सालिम’ बह्र में नहीं रखा गया जब कि इसके रुक्न [2 2 2 1 ] सालिम हैं। कारण कि यह रुक्न अपने सालिम शक्ल में इस्तेमाल नहीं होती । क्यों ? इस लिए कि उर्दू शायरी में मिसरा या शे’र का आख़िरी ’हर्फ़’ साकिन होता है जब कि ’मफ़ऊलात’ का आखिरी हर्फ़ ’त’ पे हरकत है । अगर इस रुक्न को मुसद्दद [ मिसरे में 3 रुक्न -मफ़ऊलात -,मफ़ऊलात-मफ़ऊलात ] या ’मुसम्मन में [ मिसरे में 4 रुक्न] बांधे तो आखिरी ’हर्फ़’ जो होगा वो हरकत पे ख़त्म होगा जो उर्दू के शे’र में ज़ायज नहीं माना जाता है। तब ?? इसी लिए इस रुक्न की ’मुज़ाहिफ़’[ बदली हुई] शक्ल इस्तेमाल करते हैं जिससे ’मिसरे’ का आख़िरी ’हर्फ़’ साकिन पे गिरे।
[ पाठकों की जानकारी के लिए- हिन्दी  में आजकल ’साकिन’ और ’हरकत’ का concept  नहीं है । संस्कृत में है।
साकिन को मोटा मोटी आप यूँ समझे ’हलन्त’ लगा हुआ वर्ण जैसे तत्पशचात्...कदाचित्..अकस्मात्. और हरकत को आप मोटा मोटी यूँ समझे जैसे ’रात’ ’बात’ यानी ’त’ पर जबर या फ़त्ता: का [हरकत] है]

[5]- ऊपर एक से लेकर सात तक ’सालिम’ बह्रें कहलाती है कारण कि इसके रुक्न बिना किसी काट-छांट या कतर-ब्योंत के अपने सालिम शक्ल में ही इस्तेमाल में होती हैं । इन सालिम बह्र पे मैं इसी मंच पे सोदाहरण चर्चा कर चुका हूं [ क़िस्त 1 से क़िस्त 7 तक] में  देखा जा सकता है

मुतक़ारिब बहर में ये फ़िल्मी गीत भी आप ने सुना होगा
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में यह गाना

"इशारों इशारों में दिल लेने वाले,  [122---122--122--122]
बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से"
या
तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे
 कि दिल बन के दिल में धड़कते रहेंगे

या बह्र-ए-हजज़ मुसम्मन सालिम [1222] में यह गाना

ख़ुदा भी आस्मां से जब ज़मीं पे देखता होगा [1222--1222--1222--1222]
मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता  होगा

 फ़िल्मी गीत का मिसाल देने का मक़सद फ़क़त इतना ही है कि आप बहर की आहंग [लय] मौसिकी [संगीत] तअस्सुर[प्रभाव] और दिलकशी से कितना मुत्तस्सिर [प्रभावित] होते हैं जब कोई ग़ज़ल बह्र में होती है । बह्र से ख़ारिज़ गज़ल की बात ही क्या करना

[आप ’तक़्तीअ’ कर के देख भी सकते हैं ,ऐसे बहुत से फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल मिल जायेंगे जो किसी न किसी बहर में होंगे]

[6]- ऊपर 8 से लेकर 19 तक की बह्र को ’मुरक़्क़ब’ [यानी मिश्रित ] बहर कहते हैं । कारण कि ये बहर दो या तीन रुक्न से मिल कर बनती है ।ये रुक्न मुसद्दस या मुसम्मन की सूरत में अलग अलग ही गिने जाते हैं यानी बह्र-ए-तवील की अगर कोई मुसम्मन शकल होगी तो मिसरा ऊला में रुक्न की सूरत होगी [1 2 2 + 1 2 2 2 ,1 2 2 + 1 2 2 2 ] जब कि बह्र तवील का अफ़ाईल है [ 1 2 2 + 1 2 2 2 ]

[6[अ] बज़ाहिर [स्पष्टतया] बहर 8 से लेकर 14 तक ,मिसरा या तो मुरब्ब[शे’र में 4-रुक्न] या मुसम्मन [शे’र में 8-रुक्न] में ही बाँधा जा सकता है । मुसद्दस [ शे’र में 6-रुक्न] तो क़त्तई नहीं बांधा जा सकता।

[7]- बह्र **12-से लेकर **19 तक और बह्र-ए-वाफ़िर [**6] ,उर्दू शायरी में जब भी बाँधी गईं तो मुज़ाहिफ़ शकल में ही बांधी गईं। दीगर अल्फ़ाज़ में हम यह कह सकते हैं कि ये बहरें अपनी ’मुज़ाहिफ़" शकल में ही मुस्तमिल रहीं ।

[7]अ--11 ,16,17,18,और 19 बहर , ग़ज़ल में अपनी मुसद्दस शक्ल में इस्तेमाल होती हैं कारण साफ़ है कि ये बह्रें तीन रुक्न मिला कर तो बना है तो किसी शे’र में छह ही रुक्न तो आयेंगे न। मुसम्मन में तो कत्तई नहीं बाँधा जा सकता।

 [7] ब---इन बह्र्रों में हालाँकि  मुसम्मन शकल बाँधने में कोई मनाही नहीं है और अगर कभी कोई शायर मुसम्मन शकल में शेर कहना चाहे तो उसके लिए अलग से शर्त निर्धारित है जिसकी चर्चा मैं अगले किसी क़िस्त में करूँगा जब इन बहर की चर्चा करूंगा

[8]- इन 19 बह्रों के अलावा भी उर्दू शायरी में और बहुत से बह्रें इस्तेमाल में होती हैं । आखिर वो बह्रे कहाँ से आती हैं या कैसे बनती हैं? ये बहरें ’ज़िहाफ़’ से बनती है । जब किसी सालिम रुक्न पे ’ज़िहाफ़’ लगाते हैं तो रुक्न की शकल और नाम बदल जाते हैं । उर्दू शायरी मे 49-क़िस्म के ज़िहाफ़ हैं जिसमें से कुछ ज़िहाफ़ तो कुछ ख़ास बहर पे लगते है ,और कुछ शे’र के  ख़ास location[ पे लगते हैं .यानी इब्तिदा अरूज़/जर्ब] के लिए मख़्सूस [ ख़ास तौर से निर्धारित ] हैं इनके अपने क़वानीन [कानून] और क़वायद [क़ायदे] हैं । ऐसे तर्मीम शुदा बहरें लगभग 19-20 के आस पास बैठती हैं
[9] अरूज़ सीखना और समझना कोई मुश्किल नहीं । सीखने के बाद ये सब आसान सा हो जाता है।
अगर हम ये 19-बहर और ज़िहाफ़ लगी बह्रें यानी मुज़ाहिफ़ बहरें और जोड़ लें तो ऐसे बहूर की तादाद सैकड़ों में [लगभग 200] के आसपास बैठती है


[10] कोई भी शायर इन 200 बहरों में अपनी शायरी नहीं करता और न उस से इसकी उम्मीद की जाती है । हर शायर के अपने ख़ास पसन्द दीदा बहर होते है। जिस पर उनका अधिकार होता है और वो उसी बहर में शायरी करते है जो उनको दिलकश लगता है ।अब बह्र-ए-कामिल को ही ले लीजिये । आहंगखेज़ और दिलकश बहर होने के बावज़ूद शायरों नें इस बहर में शायरी करने से  न जाने क्यों गुरेज़ किया ।इस बहर की मिसाल कम ही देखने को आती है ।इसी तरह ,अगर अज़ीम शो’अरा अगर कुछ ही बह्र में शायरी फ़र्मायेंगे तो मुस्तक़बिल [भविष्य ] में वो बहरें धीरे धीरे ख़त्म जायेंगी। ग़ालिब के दीवान में 19-अक़्साम [क़िस्में] [सालिम ,मुरक्क़ब और मुज़ाहिफ़ सब मिला कर ]  बह्र मिलते हैं-ऐसा कहा जाता है॥,जब कि मीर तक़ी मीर के छह दीवान में 28 क़िस्म के बहर का प्रयोग हुआ है

[11]- दरस्ल शायरी सिर्फ़ बहर ,रदीफ़ ,क़ाफ़िया ,वज़न फ़साहत का ही खेल नहीं बल्कि तग़ज़्ज़ुल शे’रियत ,बलाग़त-ओ-लताफ़त [काव्य सौष्ठव] तख़्ख़्य्युल .लसानी, तसव्वुरात का खेल है इसके बग़ैर शे’र बेमानी .फ़ीका .सपाट..बेजान  है भले ही वो शे’र या ग़ज़ल बहर में हो ,रदीफ़ में हो या क़ाफ़िया बन्दी सही ही क्यों न हो।सच्चा शे’र तो दो मिसरों में कायनात का तसव्वुफ़ समेटने की बात है

[12] बिना अरूज़ जाने  आप भी ’एक दिन में चार ग़ज़ल ’-कह सकते हैं मगर अरूज़ समझने अरूज़ जानने  के बाद चार दिन में एक शे’र भी सरज़द [निस्सृत] नहीं होता । सच्चे शे’र की तो बात ही छॊड़ दीजिए। ये बात मैं अपनी ज़ाती तज़ुरबात के बिना[आधार] पर कह रहा हूँ । पहले जब अरूज़ नहीं पढ़ा था तो मैं भी एक दिन में ’तथाकथित’ ग़ज़ल लिख लेता था। मगर अब  नहीं होता .लगता है कि जो शे’र कह रहा हूँ उस शे’र में जान नहीं है ,सपाट है ,नाक़िस [बेकार] है । फिर भी कुछ न कुछ नाक़िस शे’र कहने की कोशिश करता ही रहता हूँ । ख़ैर आजकल तो हर कोई ग़ज़ल कह रहा है।

[13]- आप अगर ग़ज़ल कहने का इब्तिदाईया शौक़-ओ-ज़ौक़ फ़र्माते हैं तो दो चार मानूस[प्रिय] बहर चुन लें और उसी में ग़ज़ल कहने की कोशिश करें कि कम अज कम बहर और वज़न तो सही हो।

कभी मौक़ा मिला तो मुरक़्क़ब बहरों पर भी आइन्दा पेश करूंगा। शायद उस से पहले ज़िहाफ़ पे चर्चा लाजिमी होगा बाईस कि[कारण कि] ज़िहाफ़ सालिम रुक्न पे ही लगती है और इन्ही सालिम बहूर से कई ’मुज़ाहिफ़’ बहरें बनती हैं

और अख़र में
-- सभी साहिब-ए-आलिम से मेरी दस्तबस्ता  गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं उसे दुरुस्त कर सकूं और  बा करम मेरी मज़ीद रहनुमाई फ़र्माये ।
मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।



अज़िम शेख़ "हमदर्द"
9673086786


Sunday, 4 September 2016

मेरे चेहरे पर है जमाने के पहरे कितने

मेरे चेहरे पर है जमाने के पहरे कितने
मै हसुंगा तो उतर जाएंगे चेहरे कितने

मेरी जफाओं का रोना रोते हो बहोत
तुम अपनी वफाओं मे ठहरे कितने

आस्मा अपनी उसत लिए ठहरा है
है समंदर तुम्हारे गहरे कितने

काम थोडा कर लेते है लेकिन
लोग सजा लेते है सहरे कितने

मोहब्बत का पैगा़म सुनाना है मुझे
देखिए तो ये लोग है बहरे कितने

ताबिर जो बतलाते है आज ख़्वाबों कि
बता नही सक्ते  दरपेश है ख़तरे कितने

ये तो अपनी नज़र तय करेगी "हमदर्द"
ख्वाब सियाह कितने ,सुनहरे कितने

अज़िम शेख़ "हमदर्द"
9673086786 लातुर.

Saturday, 3 September 2016

आप हमारे थे ही कब

आप हमारे थे ही कब जो बैगाने हो गये
एक जरा सी बात थी क्या फसाने हो गये

क्या तुम्हे इल्जाम दें क्या सुनाए हाल ए दिल
अब होगा कोई नया हम पुराने हो गये

जो कभी हसकर गुजरे थे पास से मेरे
आज उनके दिल में भी हजारों फ़साने हो गये

जिन्दगी ने इस तरह से ढाए है सितम मुझ पर
जब पड़ी अब्बा कि मार हम सयाने हो गये

अज़िम तुम्हारी याद में मजनु बन सका कभी
मगर लैला मजनु के किस्से कब के पुराने हो गये

अज़िम शेख़ "हमदर्द"
मो.9673076786 लातुर